30 अप्रैल 2022

हरि सिंह नलवा (30 अप्रैल 2022)


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सरदार हरि सिंह नलवा की 231 वीं पुण्यतिथि

प्रीती नलवा

सरदार हरि सिंह नलवा (1791-1837) का भारतीय इतिहास में एक सराहनीय एवं महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत के उन्नीसवीं सदी के समय में उनकी उपलब्धियों की मिसाल पाना महज असंभव है। इनका निष्ठावान जीवनकाल हमारे इस समय के इतिहास को सर्वाधिक सशक्त करता है। परंतु इनका योगदान स्मरणार्थक एवं अनुपम होने के बावज़ूद भी पंजाब की सीमाओं के बाहर अज्ञात बन कर रह गया है। इतिहास की पुस्तकों के पन्नों में भी इनका नाम लुप्त है। आज के दिन उनकी शहीदी की 231 वीं पुण्यओतिथि के अवसर पर इनकी अफ़गानिस्तान से संबंधित उल्लेखनीय परिपूर्णताओं को स्मरण करना उचित होगा। जहाँ ब्रिटिश, रूसी और अमरीकी सैन्य बलों को विफलता मिली, इस क्षेत्र में सरदार हरि सिंह नलवा ने अपनी सामरिक प्रतिभा और बहादुरी की धाक जमाने के साथ सिक्खक-संत सिपाही होने का उदाहरण स्थापित किया था। आज जब अफ़गान राष्ट्रपति हामिद करज़ई की सरकार भ्रष्टाचार से जूझ रही है, अपने ही राष्ट्र की सुरक्षा जिम्मेदारियों के लिये अंतरराष्ट्रीय बलों पर निर्भर है और अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा के लगभग 80,000 अमरीकी सैनिक अफ़गानिस्तान में तैनात, तालिबानी उग्रवादियों की आतंकी घटनाओं से बुरी तरह संशयात्मक है, यह जानना अनिवार्य है कि हरि सिंह नलवा ने स्थानीय प्रशासन और विश्वसनीय संस्थानों की स्थापना कर यहाँ पर प्रशासनिक सफलता प्राप्त की थी। यह इतिहास में पहली बार हुआ था कि पेशावरी पश्तून, पंजाबियों द्वारा शासित थे। इसलिये रणनीति और रणकौशल की दृष्टि से हरि सिंह नलवा की तुलना दुनिया के श्रेष्ठ जरनैलों से की जाती है।

सरदार हरि सिंह नलवा का नाम श्रेष्ठतम सिक्खी योद्धाओं की गिनती में आता है। वह महाराजा रणजीत सिंह की सिक्ख फौज के सबसे बड़े जनरल (कमांडर-इन-चीफ) थे। महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य (1799-1849) को सरकार खालसाजी के नाम से भी निर्दिष्ट किया जाता था। सिक्ख साम्राज्य, गुरू नानक द्वारा शुरू किये गए आध्यात्मिक मार्ग का वह एकाग्रित रूप था जो गोबिंद सिंह ने खालसा की परंपरा से निश्चित कर के संगठित किया था। गोबिंद सिंह ने मुगलों के खिलाफ प्रतिरोध के लिए एक सैन्य बल की स्थापना करने का निर्णय लिया था। खालसा, गुरु गोबिंद सिंह की उक्ति की सामूहिक सर्वसमिका है । 30 मार्च 1699 को गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा मूलतः “संत सैनिकों” को एक सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित किया। खालसा उनके द्वारा दिया गया उन सब चेलों का नाम था जिन्होंने अमृत संचार अनुष्ठान स्वीिकार करके पांच तत्व - केश, कंघा, कड़ा, कच्छा, किरपान का अंगीकार किया। वह व्यक्ति जो खालसा में शामिल किया जाता, एक खालसा सिक्ख या अमृतधारी कहलाता। यह परिवर्तन संभवतः मूलमंत्र के तौर पर मानसिकता का जैसे हिस्सा बन जाता और आत्मविश्वास को उत्पन्न करके युद्ध भूमि में सामर्थ्य प्राप्त करने में सफलता प्रदान करता।

पिछली आठ सदियों की लूटमार, बलात्कार, और इस्लाम के जबरन रूपांतरण के बाद सिक्खोंी ने भारतीय उपमहाद्वीप के उस भाग में अपने राज्य की स्थापना की जो सबसे ज़्यादा आक्रमणकारियों द्वारा आघात था। अपने जीवनकाल में हरि सिंह नलवा, इन क्षेत्रों में निवास करने वाले क्रूर कबीलों के लिए एक आतंक बन गये थे। आज भी उत्तर पश्चिम सीमांत (नौर्थ वेस्टर्न प्रोविन्स) में एक प्रशासक और सैन्य कमांडर के रूप में हरि सिंह नलवा का प्रदर्शन बेमिसाल है। हरि सिंह नलवा की शानदार उपलब्धियाँ ऐसी हैं कि वह गुरु गोबिंद सिंह द्वारा स्थापित परंपरा की उदाहरण देती हैं और उन्हें इसीलिये सर हेनरी ग्रिफिन ने “खालसाजी का चैंपियन” के नाम से सुसज्जित किया है। ब्रिटिश शासकों ने हरि सिंह नलवा की तुलना नेपोलियन के प्रसिद्ध कमांडरों से भी की है।।

हरि सिंह नलवा ने महाराजा रणजीत सिंह के निर्देश के अनुसार सिक्ख साम्राज्य की भूगोलिक सीमाओं को पंजाब से लेकर काबुल बादशाहत के बीचों बीच तक विस्तार किया था। महाराजा रणजीत सिंह के तीन दशकों के शासनकाल की अवधि में (1807 ई. से लेकर 1837 ई. तक), सिक्ख शासन के दौरान हरि सिंह नलवा लगातार अफ़गानों के खिलाफ लड़े। अफ़गानों के खिलाफ जटिल लड़ाई जीतकर नलवा ने उनकी मिट्टी पर कसूर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर में सिक्ख शासन की व्यवस्था की थी। हरि सिंह नलवा के जीवन के परीक्षणों का वर्णन, उन्नीसवीं सदी की पहली छमाही में सिक्ख-अफ़गान संबंधों का प्रतिनिधित्व है। काबुल बादशाहत के तीन पश्तून वंशवादी के प्रतिनिधि सरदार हरि सिंह नलवा के प्रतिद्वंदी थे। पहला अहमद शाह अब्दावली का पोता शाह शुजा था; दूसरा फ़तेह खान, दोस्त मोहम्मद खान और उनके बेटे, और तीसरा सुल्तान मोहम्मद खान, जो ज़ाहिर शाह अफ़गानिस्तान के राजा का पूर्वज (1933 -73) था।

सिंधु नदी के पार, उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में, पेशावर के आसपास, अफ़गानी लोग कई कबीलों में विभाजित थे। आज भी अफ़गानिस्तान के विभिन्न कबीले कितने ही वर्षों से आपस में लड़ रहे हैं। किसी भी नियम के पालन से परे, आक्रामक प्रवृति इन अफ़गानों की नियति है। पूरी तरह से इन क्षेत्रों का नियंत्रण करना हर शासन की समस्यात्मक चुनौती रही है। इस इलाके में सरदार हरि सिंह नलवा ने सिंधु नदी के पार, अपने अभियानों द्वारा अफ़गान साम्राज्य के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा करके, सिक्ख साम्राज्य के उत्तर-पश्चिमी सीमांत का विस्तार किया था। नलवे की सेनाओं ने अफ़गानों को दर्रा खैबर के उस ओर बुरी तरह खदेड़ कर इन उपद्रवी कबायली अफ़गानों/पठानों की ऐसी गति बनाई कि परिणामस्वरूप हरि सिंह नलवा ने इतिहास की धारा ही बदल दी।

ख़ैबर दर्रा पश्चिम से भारत में प्रवेश करने का एक महत्वपूर्ण मार्ग है। ख़ैबर दर्रे के ज़रिये 500 ईसा पूर्व में यूनानियों के साथ भारत पर आक्रमण करने, लूटने और गुलाम बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। आक्रमणकारियों ने लगातार इस देश की समृद्धि‍ को तहस-नहस किया। यूनानियों, हूणों और शकों के बाद अरबों, तुर्कों, पठानों, मुगलों के कबीले लगभग एक हजार वर्षों तक इस देश में हमलावर बनकर आते रहे। तैमूर लंग, बाबर और नादिरशाह की सेनाओं के हाथों भारत बेहद पीड़ित हुआ था। हरि सिंह नलवा ने ख़ैबर दर्रे का मार्ग बंद करके इस ऐतिहासिक अपमानित प्रक्रिया का पूर्ण रूप से अन्त कर दिया था। प्रसिद्ध सिक्ख जरनैलों में सबसे महान योद्धा माने गये इस वीर ने अफ़गानों को पछाड़ कर यह निम्नलिखित विजयों में भाग लिया: सियालकोट (1802), कसूर (1807), मुल्तान (1818), कश्मीर (1819), पखली और दमतौर (1821-22), पेशावर (1834) और ख़ैबर हिल्स में जमरौद (1836) । हरि सिंह नलवा कश्मीर और पेशावर के गवर्नर बनाये गये। कश्मीर में उन्होने एक नया सिक्का ढाला जो ‘हरि सिंघी’ के नाम से जाना गया। यह सिक्का आज भी संग्रहालयों में प्रदर्शन पर है। हजारा, सिंध सागर दोआब का विशिष्ट भाग, उनके शासन के तहत सभी क्षेत्रों में से सबसे महत्वपूर्ण इलाका था। हजारा के संकलक ने लिखत में दर्ज किया है कि उस समय केवल हरि सिंह नलवा ही अपने प्रभावी ढंग के कारण, एक मजबूत हाथ के द्वारा इस जिले पर नियंत्रण कर सकते थे।

पंजाबी सीमा की सुरक्षा के लिए और पंजाब की धरती पर अफ़गानी हमलों को रोकने के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने हरि सिंह नलवा को खैबर के प्रवेश द्वार पर किले का निर्माण करने के लिये आदेश दिया था। हरि सिंह नलवा के अधीन अट्टक से खैबर दर्रे तक किलों की एक श्रृंखला का निर्माण हुआ, उसमें मशहूर जमरौद का किला भी शामिल था। 1837 में जमरौद की जंग में लड़ते हुए हरि सिंह नलवा शहीद हुए। ब्रिटिश लेखक, सर लेपेल ग्रिफिन ने हरि सिंह नलवा के जमरौद के अभियान का एक विस्तृत और व्यापक वर्णन दिया है। जब महाराजा रणजीत सिंह अपने बेटे नौनिहाल सिंह की शादी की तैयारी में व्यस्त थे, हरि सिंह नलवा उत्तर-पश्चिमी सीमांत की रखवाली कर रहे थे। उनके साथ सैनिक बल की एक मुट्ठी भर टुकड़ी थी। यह माना जाता है कि उनका महाराजा रणजीत सिंह को अतिरिक्त सैनिकों को भेजने का आग्रह करने के बावजूद तकरीबन एक महीने तक ना अस्ला बारूद और ना ही सैनिक भेजे गये। इस विलंब में ध्याबन सिंह डोगरा का षड्यंत्र उभर कर आता है। ऐसा शक है कि डोगरा भाइयों ने हरि सिंह नलवा के खिलाफ़ साजिश रची थी।

अप्रैल 1837 में, जब पूरी अफ़गान सेना ने जमरौद पर हमला किया था, अचानक प्राणघातक घायल होने पर नलवा ने अपने नुमायंदे महान सिंह को आदेश दिया कि जब तक सहायता के लिये नयी सेना का आगमन ना हो जाये उनकी मृत्यु की घोषणा ना की जाये जिससे कि सैनिक हतोत्साहित ना हों और वीरता से डटे रहें। हरि सिंह नलवा की उपस्थिति के डर से अफ़गान सेना दस दिनों तक पीछे हटी रही। एक प्रतिष्ठित योद्धा के रूप में नलवा अपने पठान दुश्मनों के सम्मान के भी योग्य बने। कई गाथागीत उनकी बहादुरी की प्रशंसा में लिखे गये थे।

ऐसा हमें युद्ध कबु देखिया नाही, जैसा सरदार हरि सिंह करवाया है,
जैसा कुम्भ्करन हनुमन बलवान बीच, लन्का दे मैदान राम चन्द्र करवाया है,
तैसा अर्जन ने युद्ध नाल कौरवों दे खूब कित्तता, धनुसुर्थ अन्त द्वापर लगाया है,
कहे राम दयाल ऐसा सिंह सरदार, अट्टक भया बेशुमार युद्ध भारा करवाया है [42]

(राम दयाल 1840 : f 107 b)